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राजनीति शक्ति है तो कविता दृष्टि- उदय प्रताप सिंह

-रवि यादव
(लेखक/अभिनेता/फिल्म निर्माता)
 9321389083
मेरा है तेरा है ये हिन्दुस्तान सबका है, नहीं समझी गयी ये बात तो नुकसान सबका है।
हज़ारों रास्ते खोजे गए उस तक पहुँचने के, मगर पहुंचे हुए ये कह गए भगवान् सबका है। 
 उपरोक्त पंक्तियाँ लिखने वाले कवि आदरणीय उदय प्रताप सिंह को सिर्फ कवि तक सीमित नहीं रखा जा सकता। वो एक बेहतरीन कवि के साथ एक समाज सेवी, एक राजनेता, एक गुरु और हिंदी के जाने माने विद्यावान हैं। 18 मई 1932 को जिला मैनपुरी (उत्तर प्रदेश) के गढिया छिनकौरा गाँव में उनका जन्म डाक्टर श्री हरिहर सिंह चौधरी के घर हुआ। पूरा परिवार पढ़ा लिखा और सुसंस्कृत था और घर में शुरू से ही शायरी और कविता का माहौल था। इसका असर उदय जी के बचपन पर भी पड़ा। पढने लिखने में उनकी रूचि थी और वो एक अच्छे छात्र के रूप में जाने जाते थे मगर साथ ही साथ लेखन में भी उनकी अभिरुचि रही। बहुत छोटी उम्र से ही उदयप्रताप जी ने कवितायेँ लिखना और हिंदी अंग्रेजी के साहित्य को पढना और समझना शुरू कर दिया था। मार्क्सवाद की तरफ उनका रुझान किशोरावस्था से ही हो गया। हिंदी और इंग्लिश, दो-दो भाषाओँ में एम. . करने वाले उदय जी ने करीब 18 सालों तक मदन इंटर कॉलेज, भोगांव और नारायण इंटर कॉलेज शिकोहाबाद में प्राचार्य का पद संभाला। वहीँ से सपा प्रमुख श्री मुलायम सिंह से एक रिश्ते की शुरुआत हुई। गुरु और शिष्य का रिश्ता। उदय जी मुलायम सिंह के गुरु हुए तो उनका दूसरा नाम हीगुरु जीहो गया। कविता के साथ-साथ राजनीति से भी उदय प्रताप जी का गहरा संबंध है।1989 में उन्होंने मैनपुरी से लोकसभा चुनाव लड़ा और सांसद चुने गए। दो बार वो समाजवादी पार्टी की तरफ से राज्य सभा के सदस्य भी चुने गए। 1997 से 2000 तक वो राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य भी रहे।
 राजनीति में लगातार सक्रिय रहते हुए भी उन्होंने रचनाधर्मिता को कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। जो जब ठीक लगा उन्होंने लिखा। उनकी लेखनी कभी भी हवा के रुख के अनुसार नहीं बही। शहीदों की अनदेखी के दुखी उनकी कलम ने जब सत्ताधारियों के खिलाफ़ लिखा तो ये रचना चर्चा का विषय बन गयी

कभी-कभी सोचा करता हूँ वो बेचारे छले गए।
जो फूलों के मौसम लाने की कोशिश में चले गए।
करीब बीस देशों का भ्रमण कर चुके आदरणीय उदयप्रताप को अनेकों सम्मानों से सम्मानित किया गया है जैसे- पैरामारी विश्वविद्यालय सूरीनामा द्वारा आचार्य की उपाधि, डा. शिवमंगल सिंह सम्मान, शायरे- यक़ज़हती सम्मान और विद्रोही सम्मान। इस समय उदय प्रताप जी को उत्तर प्रदेश सरकार ने कैबिनेट मंत्री का दर्ज़ा दिया हुआ है और उन पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी है। इस बार जब लखनऊ गया तो मैंने उनसे उनके आवास पर जाकर मुलाक़ात की। काफी अपनेपन और साहित्यिक वातावरण में, कविता, राजनीति और उनके व्यक्तिगत जीवन के बारे में उनसे एक लम्बी बाचचीत हुई।   

प्रश्नसर आपके जीवन में कविता का प्रारंभ कहाँ से हुआ मतलब आपको कुछ याद आता है कि कविता और शायरी से रिश्ता कैसे जुड़ा?
उत्तर – (हँसते हुए) कुछ क्यों हमें तो पूरा-पूरा याद है। कविता का वातावरण हमारे घर में शुरू से ही था। हमारा परिवार अत्यंत शिक्षित परिवारों में गिना जाता था। आपको ये जानकार आश्चर्य होगा कि ज़िला मैनपुरी में हमारे बाबा ने सन 1895 में बी.. किया था और बाद में वो डिप्टी कलेक्टर रहे। अगली पीढ़ी में हमारे पिताजी डाक्टर थे, हमारे एक ताऊ प्रोफ़ेसर थे एक ताऊ जाने माने शायर थे जिनका नाम हिन्दुस्तान के बाहर  भी विख्यात था। यानी हमने आँखें, पढने लिखने और शायरी, कविता के वातावरण में खोली और वातावरण का मुझ पर बहुत असर पड़ा। जब मैं इंटर में पढ़ रहा था उन दिनों मैंने क्रीट्स की एक पोयम का हिंदी में अनुवाद किया और उस अनुवाद की ख़ास बात ये थी कि जिस मीटर में वो कविता लिखी गयी थी मैंने बिलकुल उसी मीटर में उसका अनुवाद किया था।
प्रश्न- सर आपने गद्य और पद्य दोनों विधाओं में लिखा है। क्या दोनों विधाओं से बचपन से लगाव था?
उत्तर- देखिये वैसे गद्य से मेरा वास्ता ज्यादा रहा नहीं है। लिखा उसमे भी काफी है ऐसा नहीं कि लिखा नहीं है लेकिन मैं स्वयं को कविता के पथ का पथिक मानता हूँ। एक बात आपको मैं और बताऊँ कि दुनिया की हर भाषा में कविता का जन्म गद्य से पहले हुआ। अब जैसे अंगेरजी में कविता का जन्म हुआ 1200 के आस-पासऔर एडिसन और स्टीव हुए हैं उसके पांच सौ : सौ साल बाद। हिंदी में भी कविता का जन्म माना जाता है चंद्र बरदाई और कालखंड के रचयिता जगनेक के समय में, अगर आप भक्ति काल को ना भी माने कि चलो वो वीर गाथा काल था तब भी हिंदी कविता 1000 साल पुरानी है जबकि हिंदी में गद्य कब आया ? लल्लू लाल सदर मिश्र और रानी केतकी की कथा अभी सौ डेढ़ सौ साल पहले लिखी गयी। इसी तरह उर्दू में भी शायरी चल रही है मीर, अमीर खुसरो के वक़्त से ये भी करीब दो ढाई सौ साल साल पुरानी बात है और उर्दू में पहला गद्य लेखन आता है उमराव जान हादी रुसवा का। संस्कृत में आजतक गद्य का कोई ख़ास महत्व नहीं है, भाषा टीका के अलावा जो भी लिखा जाता है वो पद्य में लिखा जाता है। मेरे कहने का तात्पर्य ये कि गद्य लिखने से कहीं ज़्यादा गौरवशाली बात कविता लिखना है। लेकिन ये भी कमाल की बात कि कवियों को हमेशा गद्य लेखकों की तुलना में हाशिये पर ही रखा गया और बड़े-बड़े सम्मान और पुरस्कार गद्य लेखकों को ही दिए जाते रहे। तो जब मैं हिंदी संस्थान का अध्यक्ष बना तो मैंने जो बड़े-बड़े कवि हैं जैसे कैलाश वाजपेयी, नीरज, सोम ठाकुर उन्हें सम्मानित किया और उन्हें मुख्य धारा में लाने का प्रयास किया।
प्रश्न- सर आपकी जो समझ साहित्य के बारे में है चाहे वो हिंदी साहित्य हो, अंग्रेजी साहित्य हो, उर्दू साहित्य हो या फिर संस्कृत साहित्य हो, मैं उसे देख कर सच में हतप्रभ हूँ। लेकिन कहीं आपको ऐसा लगता है कि इस तरह के लोग हमारे समाज में कम हैं या यूँ कहें कि कला और संगीत से जुडी बिरादरी होते हुए भी हम लोगों का रिश्ता साहित्य और कला से थोडा कमज़ोर पड़ा और हम उससे दूर होते गए ?
उत्तर- नहीं मैं आपकी इस बात से सहमत नहीं हूँ। देखिये हमारा जो ये यदुवंश है ये कृष्ण से जुड़ा हुआ है और जितनी भी कलाएं हैं, ललित कलाएं हैं वो कृष्ण से सम्बंधित हैं। बल्कि हमारा जो समाज है उसकी बहुत बड़ी भागीदारी लोककलाओं को जीवित रखने में है। कारण ये है कि, यादवों का जो मुख्य पेशा रहा वो गो पालन और किसानी रहा हालांकि मुगलों और अंग्रेजों के आने के बाद सेना में भी यादवों की काफी सहभागिता रही। लेकिन जो गाँव में किसान रहा उसकी वजह से लोक कलाएं, लोक संस्कृत, लोक नृत्य, भजन, कीर्तन, आल्हा और बिराह जैसी कलाएं जिंदा रहीं। हाँ ये मानता हूँ कि, उस समय प्रचार के इतने ज़यादा साधन नहीं थे इसलिए वो कलाकार गुमनाम रहे और अपनी तपस्या करते रहे।
प्रश्न- सर कविता पूरी तरह दिल का मामला है और राजनीति पूरी तरह दिमाग का खेल है। आपको दोनों में महारथ हासिल है। कैसे आप दोनों में सामंजस्य बिठा पाते हैं। मतलब आपके अन्दर कभी एक कवि और राजनेता के बीच रस्साकसी नहीं होती?
उत्तरजी नहीं बिलकुल नहीं। क्योंकि मैं ऐसा मानता हूँ कि, राजनीति और कविता, दोनों का उद्देश्य एक ही है। दोनों एक दूसरे से भिन्न नहीं है बल्कि समरूप हैं। राजनीति का काम है विषमता, भेद भाव और ऊँच नीच को ख़तम करके समाज को विकास देना और दुनिया को सुन्दर बनाना, कविता का भी यही काम है दुनिया को अपने भावों के मध्यम से सुन्दर बनाना। फ़र्क सिर्फ इतना है कि, कविता के पास दृष्टि है मगर शक्ति नहीं है। राजनीति के पास शक्ति है। कविता राजनीति को दृष्टि देकर उसका पथप्रदर्शन करे और समाज को सुन्दर बनाये। इस तरह दोनों का उदेश्य एक ही है।
प्रश्न- हिंदी संस्थान को इन दिनों आप संभाल रहे हैं उसको लेकर आपकी क्या योजनायें हैं ?
उत्तर- उतर प्रदेश हिंदी संस्थान, हिंदी के प्रचार, प्रसार और विकास के लिए दिन रात काम कर रहा है। मैं तो कहता हूँ कि जितने भी बाक़ी हिन्दीभाषी राज्य हैं जैसे बिहार, उतराखंड, हरियाणा, दिल्ली, मध्य प्रदेश और थोडा सा हिस्सा राजस्थान, ये सब मिलकर जितना हिंदी के विकास के लिए कार्य कर रहे हैं उस से कहीं ज्यादा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान अकेला कार्य कर रहा है। हम कुल मिलकर 114 सम्मान देतें हैं साहित्य के क्षेत्र में, जो एक लाख से लेकर पांच लाख तक के पुरूस्कार हैं। हिंदी संस्थान स्थापित हो चुके नामों को पुरूस्कार देकर सम्मानित करता है और जो अभी संघर्ष कर रहे हैं उनकी किताबें प्रकाशित करके, उनके लिए नयी-नयी सेमीनार आयोजित करके सहयोग करता है। जो अहिन्दी भाषी क्षेत्र हैं वहाँ भी हिंदी के प्रचार और प्रसार हेतु हम काम करते हैं। हिंदी संस्थान स्वयं अपनी दो पत्रिकाएं प्रकाशित करता है एक बच्चों के लिए और दूसरी बड़ों के लिए।
प्रश्न- गुरु जी, जीवन में साहित्यकार के तौर पर, राजनेता के तौर पर और एक इंसान के तौर पर आपको  बहुत कुछ मिला है। क्या कभी किसी बात का अफ़सोस रहता है कि ये और होता तो अच्छा होता। या आप अपने सफ़र से संतुष्ट हैं ?
उत्तर-  (हँसते हुए) मेरा एक शेर है जो आपके प्रश्न का जवाब दे देगा

जिसकी दुनिया उसकी मर्ज़ी पर भी तो कुछ छोड़ा कर, अक्सर बात बिगड़ जाती है, ज़्यादा बात बनाने मेंऔर मेरा एक और शेर है कि  “ना ख्व़ाब बाक़ी हैं मंजिलों के ना जानकारी है रहगुज़र की, फ़कीर मन जो बुलंदियों पर ठहर गया तो ठहर गयामेरा ये मानना है कि जो प्राप्त है वो पर्याप्त है। अक्सर होता ये है कि जो प्राप्त है हम उसे छोड़कर अप्राप्त के पीछे भागते हैं और वही दुःख का कारण है।

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