-विजय यादव
संपादक-यदुवंश गौरव
9664640077
मंज़िलें नहीं रास्ते बदलते है
जगा लो जज्बा जीतने का
किस्मत कि लकीरें चाहे बदले न बदले
वक़्त जरूर बदलता है

हम बात कर रहे है उस शख्सियत की जो, अाज कृष्ण की कर्मभूमि गुजरात से पुरे देश में अपनी कर्मठता और मेहनत की खुशबु फैला रहा है। गुजरात से मुंबई, दिल्ली और यूपी-बिहार तक के यादवों मे सभी का प्यारा और दुलारा बन गया है। नाम है हेमचन्द्र यादव। उत्तर प्रदेश, जौनपुर जिले के सुजानगंज बाजार स्थित गहरपारा गांव में जन्मे हेमचन्द्र यादव आज पुरे देश में अपनी मेहनत और योग्यता को लेकर समाज के लिए एक मिशाल बने हुए हैं। आज गुजरात के गांधीधाम में अपनी भरे-पूरे परिवार के साथ तीन-तीन कंपनियों का सञ्चालन कर रहे हेमचन्द्र यादव कभी गांव के दूधहारा (दूध बेचनेवाला) हुआ करते थे। बचपना आर्थिक दिक्क्तों में बिता। पिता श्री बुद्धिराम यादव पश्चिम बंगाल के आसनसोल में नौकरी करते थे। प्राथमिक शिक्षा वहीँ हुई इसके बाद आगे की पढाई के लिए खर्च बढ़ा तो गाँव आ गए। इनकी कुशाग्र बुद्धि को पिताजी ने आसनसोल में ही भांप लिया था, जब यह कक्षा ४ में जिला प्रथम आये थे।
परिंदो को मिलेगी मंज़िल एक दिन
ये फैले हुए उनके पर बोलते है
और वही लोग रहते है खामोश अक्सर
ज़माने में जिनके हुनर बोलते है।
1981 में इन्होने ने इलाहाबाद से बीए पास किया। इच्छा थी सिविल सेवा में जाने की लेकिन, वक्त की चाह कुछ और थी। बीए की पढाई के बाद गांव में ही एक साल का समय इधर-उधर में गुजर गया। इस बीच फ़ुटबाल और गांव की नौटंकी मनोरंजन और समय पास का जरिया रहा। इच्छा हुई कुछ किया जाय। मौसा जी के गांव रयां से एक तीन हजार रुपये की भैंस लाये और शुरू कर दिया दूध का व्यवसाय। भैंस साढ़े तीन लीटर दूध देती थी वही लेकर सुबह-सुबह पड़ोस के बाजार बेलवार पहुँच जाते थे। कुछ लोग दूध बेचता देख ताने भी कसते थे। हर दिन अलग-अलग सवाल उठते थे कि, तुम तो आईएएस बनने वाले थे और दूध बेच रहे हो। ये ऐसे सवाल थे जिसका जवाब देना उस समय मुश्किल होता था। हेमचन्द्र बताते हैं कि, यही सवाल हमारे लिए हर दिन नई ऊर्जा पैदा करते थे। तमाम सवालों से माँ कभी-कभी बड़ी दुखी हो जाती थी, तब मैं नाटक की कहानियों के मुख्य नायक की कहानी से माँ को समझाता था। देखो पहले नायक कितना परेशान होता है, बाद में जीत उसी की होती है। चिंता ना करो मेहनत का फल बड़ा मीठा होता है।
एक दिन भाई हरिश्चन्द्र यादव के बुलावे पर मुंबई चला गया। घर-परिवार, मित्र-यार सभी व्यथित थे। कृष्ण की तरह मैं भी यही कहकर घर से निकला था, बस कुछ ही दिनों में लौट आऊंगा। समय को कुछ और मंजूर था। भाई हरिश्चन्द्र ने जिनके कहने पर मुंबई बुलाया था, उनका नाम श्री राजेश्वर दुबे था। दुबे जी प्रतापगढ़ जिले के निवासी थे। उन्होंने सीताराम चीलप नाम के एक ठेकेदार के साथ शिवड़ी टिम्बर पोर्ट पर काम दिला दिया। सुबह साढ़े आठ बजे पोर्ट पहुँच जाता था और रात साढ़े ग्यारह- बारह बजे घर लौटता था। हाथ गाड़ी खींचता था। ६-६ मजदूरों का काम अकेले करता था। इस तरह एक-डेढ़ महीने में थक कर चूर हो गया था और एक दिन अचानक नौकरी छोड़ दी। हेमचन्द्र आगे बताते हैं कि, हमने एक दिन अपनी सभी मार्कसीट फाड़ दी। हमें लगने लगा जब यही काम करना है तो, इस शिक्षा सर्टिफिकेट की क्या जरुरत ? शेक्सपियर की वह बात भी याद आने लगी कि, उन्होंने कैसे लिखा है " सक्सेज इज नॉट मैटर ऑफ़ लक........ हमें लगा की यह सब ऐसे ही किसी को झूठा साहस देने के लिए लिख दिया होगा।
नौकरी छोड़ने के बाद तरह-तरह की बातें दिमाग में आ रही थी। सोचता था कि, गांव चलकर एक नाटक मंडली शुरू कर दूंगा साथ में अपना पुस्तैनी दूध का धंधा। इसी दौरान राजेश्वर दुबे को खबर मिली कि, हमने काम छोड़ दिया है। उन्होंने बुलाकर हमें एक थप्पड़ मारा और कहा की " आज से ही दुबारा काम पर लग जाओ, यह कुछ समय की मेहनत तुम्हारा भाग्य बदल देगी" यह बताते हुए हेमचन्द्र अचानक भाउक हो जाते हैं। फिर आगे कहते हैं
" उस समय परिवार की तमाम बातें दिमाग में किसी चलचित्र की तरह चलने लगी, माँ की बातें, पिता की तमाम इच्छाएं। मन ने एक बार फिर शिवड़ी पोर्ट जाने का विचार बना लिया। नियमित काम पर जाने लगा। वही हाथ गाड़ी, वही लकड़ियों का ढेर, पूरा वक्त बंदरगाह पर बीतता। अगर मन की कोई बात कहनी भी हो तो, साथी के रूप में उन्ही बेजान लकड़ियों से कुछ बाते कर मन हल्का कर लेता था। यह सिलसिला चल ही रहा था कि, एकदिन अचानक एक जरुरी लेटर लिखना था। उस दिन कोई वरिष्ठ कर्मचारी नहीं आया था जो पत्र लिख सके। सीताराम की परेशानी देखकर हमने खुद कहा, अगर आप कहें तो मैं लेटर लिख दूँ। उसने हाँ कह दी। हमने अंग्रेजी में पत्र लिखा। पत्र देखने के बाद कंपनी का डायरेक्टर बहुत खुश हुआ। उसने सीताराम चीलप से बुलवाया और हमारे पत्र व सुन्दर रायटिंग की बहुत तारीफ की। बस समझिए यहीं से भाग्य करवट लेने की तैयारी में था। 300 सौ रुपये की मासिक तनख्वाह पर हमें मजदूरों का काम छोड़ आफिस में काम मिल गया।
एक महीने बाद हेमचन्द्र यादव को 300 रुपये की पहली तनख्वाह मिली। बताते हैं कि, 20-20 रुपये के कुल 15 नोट थे, आज भी उन रुपयों का रंग याद है। घर पहुंचकर 10 बार तो उसकी गिनती की होगी। मैं शब्दों में अपनी उन खुशियों का बयान नहीं कर सकता। उस दिन हमें बिलकुल थकान नहीं लग रही थी। ईश्वर ने यहीं से हम पर अपनी कृपा दृष्टि बढ़ानी शुरू की और एक महीने बाद तनख्वाह बढ़ कर मासिक सात सौ रुपये हो गई। यहीं से उम्मीदों किरण दिखाई देने लगी। धीरे-धीरे कुछ पैसों का जुगाड़ कर कुर्ला के हलावपुल में एक छोटा सा घर ले लिया, घर क्या हमारे लिए तो वह किसी हवेली से कम नहीं थी। आज भी उसे रखा हूँ, जब भी कभी मुंबई जाना होता है तो कुछ घंटे ज़मीन पर सोकर जरूर बिताता हूँ। घर की आधी दीवार ईंट की तो आधी दीवार आज भी टीन (पत्रा) का बना हुआ है। बच्चों को भी दिखा लाया हूँ। बच्चे देखकर आश्चर्य में पड़ते हैं, कहते हैं पापा आप यहाँ रहते थे ? और मैं सहज ही जवाब दे देता हूँ
"बेटा मेरे लिए तो, यह आज भी हवेली है, इस ज़मीन पर सोकर जो सुख मुझे मिलता है वह किसी आलिशान कोठी-बंगले में नहीं।
करीब दो साल बाद 1986 में राधा-कृष्णा शिपिंग कंपनी ने हमें गुजरात के कांडला बंदरगाह पर कंपनी का इंचार्ज बनाकर भेज दिया यूँ मानो हमें द्वारकाधीश के पास भेज दिया हो। बशीर बद्र की वह कविता याद आई " जबसे चला हूँ राह पर मिल का पत्थर नहीं देखा ....... पत्थर तो क्या हमने तय कर लिया कि, अब तो घड़ी भी नहीं देखनी है। कुछ सालों बाद नौकरी छोड़ दी और अपना खुद का कारोबार शुरू किया। शिवम सीट्रांस व यदु इम्पेक्स नाम से अलग-अलग कम्पनिया हैं। कुल डेढ़ सौ लोगों का स्टाफ है। इसके साथ ही टिम्बर हैंडलिंग एसोशिएशन के अध्यक्ष, गांधीधाम चेंबर ऑफ़ कामर्स के सदस्य, कांडला कस्टम हॉउस एजेंट एसोसिएशन के सेक्रेटरी व कच्छ इंडस्ट्रीज एसोसिएशन अादी व्यवसायिक संस्थानों से जुडे हैं। इन सबसे अलग और महत्वपूर्ण कार्यों में "सुन्दरकांड प्रचारक संघ" का काम शामिल है। हर शनिवार अलग-अलग स्थानों पर सुंदरकांड का आयोजन किया जाता है, जो इन्हे ऊर्जा देने का काम करता है। उत्तर भारतीय कच्छ सेवा समाज संगठन के कोषाध्यक्ष भी हैं। इस समय इस संस्था की ओर से गांधीधाम में भव्य उत्तर भारतीय भवन का निर्माण किया जा रहा है। हेमचन्द्र यादव के नेतृत्व में यादव समाज की ओर से भी कई महत्वपूर्ण कार्य गुजरात में किये जा रहे हैं। 2011 में विभागीय परीक्षा देकर इन्होंने इम्पोर्ट (अायात) का लायसन्स भी प्राप्त कर लिया है। आज भी किताबें पढ़ने का शौक है, घर में ही एक लायब्रेरी है। आगे पीएचडी करने की इच्छा है। समाज के लोगों से निवेदन है की खूब पढ़ें। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जिसके बल पर तरक्की की जा सकती है। हमारे माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा ही हमारे काम आई। शिक्षा के माध्यम से समाज की कुरीतियों का खात्मा भी होता है। डिग्री लेने भर से ही कुछ नहीं होता लोगों में संस्कार लाना जरुरी है जिसके लिए नई पीढ़ी अच्छे संस्कार सीखे। अगर जीवन में तरक्की करनी है तो, किसी भी तरह के व्यसन से दूर रहे।
हेमचन्द्र बताते हैं, माँ-पिताजी बड़े ही धार्मिक रहे हैं। माँ का आठ साल पहले देहांत हो गया। पिता श्री बुद्धिराम यादव गांधीधाम में ही परिवार के साथ रहते हैं। जब कभी मन होता है गांव घूम आते हैं। इन्ही की कृपा से गांव में 50 बीघा जमीन है। गांव से जब मैं मुंबई गया था तब मात्र डेढ़ बीघा जमीन थी। तीन बेटे व तीन बेटियां है। बड़ी बेटी अंजू अपने पति श्री रमेश यादव (पीसीएस) के साथ लखनऊ में रहती है। दूसरी बेटी रोशनी आईएएस की तयारी कर रही है इसी तरह सबसे छोटी बेटी तारा सीएस की पढाई कर रही है। तीनो बेटे कन्हैया, कृष्णा व
नंदलाल कारोबार में साथ देते हैं। सभी का नामकरण माँ ने किया था। उनके जाने के बाद पोता हुआ सो हमने भी माँ की कृष्ण भक्ति से प्रेरित होकर "यदुराज" नाम रख दिया। माँ-पिताजी के साथ ही आज हम श्री राजेश्वर दुबे भाई हरिश्चन्द्र यादव का भी उतना ही सम्मान करते हैं, जिन्होंने हमें राह दिखाया। हम अपने विजिटिंग कार्ड पर भी "श्री राज राजेश्वर कृपा"
लिखते हैं।
(हेमचन्द्र यादव से इस नंबर पर संपर्क किया जा सकता है-9825225515.)
No comments:
Post a Comment