-रवि यादव
(लेखक/अभिनेता/फिल्म निर्माता)
9321389083
संगीत का सम्बन्ध यदुकुल के साथ बहुत पुराना
है। बल्कि कई गायन विधाओं का तो उदगम ही यादवों से हुआ है जैसे “बिरहा” । श्री कृष्ण जब
मथुरा चले गए तो उनके विरह में गोप -गोपिकाओं और गोकुलवासियों ने अपना विरह व्यक्त
करने के लिए जो गाया उसे बिरहा का नाम दिया गया। सर्व कलाओं से पूर्ण सिर्फ एक ही
अवतार हुए हैं आज तक वह “श्री कृष्ण” है। उन्होंने
अपने जन्म के लिए यादव कुल को चुना ये यदुवंश का सौभाग्य है। किन्तु धीरे धीरे
संगीत और यादवों का रिश्ता कमज़ोर पड़ता गया या यूँ कहें कि कला साहित्य और संगीत इन
सभी में यादवों की रूचि कम होती गयी या जिनकी रूचि रही भी वो आगे नहीं आ पाए। ये
दुःख की बात है। धीरे धीरे यादवों की छवि जो बनाई गयी या यादवों ने स्वयं बनाई वो
बहुत अच्छी तो नहीं थी। कितु इस निराशा भरे माहौल में भी हमारे समाज के काफी लोग
लगातार अग्रसर है, समाज को एक नया
चेहरा देने का प्रयास जारी है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में हमारी उपस्तिथि एक तरह
से नहीं के बराबर ही है। किन्तु डा. परमानन्द यादव इस क्षेत्र में अपने सामाज का
नाम रौशन कर रहे हैं, ये देख कर मुझे
बहुत ख़ुशी हुई। उन्होंने इस क्षेत्र में अपना एक ऐसा मुकाम बनाया कि, उनके नाम के साथ
पंडित शब्द जुड़ गया। “पंडित
डा.परमानन्द यादव”
परमानन्द यादव का जन्म 29 सितम्बर 1964 में देवरिया उत्तर
प्रदेश में हुआ। संगीत उन्हें विरासत में मिली। उनके दादा जी श्री इन्द्रासन यादव
साधू थे, जो रामायण एवं
आल्हा गायकी में एक जाना माना नाम था। राजा महाराजाओं के यहाँ भी उन्हें बड़े
सम्मान के साथ बुलाया जाता था। डा. परमानन्द के पिता श्री कृष्ण यादव बहुत ही सुरीले
थे और ढोलक बहुत ही अच्छी बजाते थे। यानी सुर और ताल उन्हें विरासत में मिली।
इन्होने उसी को आगे बढाते हुए बाकायदा संगीत की शिक्षा ली और बड़ी बड़ी डिग्रियां
हासिल की। बनारस हिन्दू युनिवर्सटी से D. Mus (doctorate in music),
M. Mus (master of music), B. Mus (bachelor of music), Diploma in music करने के बाद
उन्होंने अपना पूरा जीवन संगीत को समर्पित कर दिया। वो इस बात को अपना सौभाग्य और
गर्व समझते हैं कि, वो विश्व विख्यात, सुर सम्राट पद्म
विभूषण आदरणीय कुमार गन्धर्व के शिष्य हैं। डा. परमानन्द ने अपने गुरु के नाम पर “कुमार गन्धर्व
फाउन्डेशन ” नाम की एक संस्था
बनायी जो लगातार संगीत के प्रचार प्रसार के लिए कार्यरत है और संगीत क्षेत्र की
प्रतिभाओं को सम्मानित करके उनका उत्साहवर्धन भी करती है। भजन गायकी में आज वो एक
जाना माना नाम है और गायन के लिए देश भर में बड़े सम्मान के साथ बुलाये जाते हैं।
सूर,कबीर,मीरा,तुलसी और
ब्रह्मानंद जैसे महान कवियों के पद गाने के लिए रेडियो, टी.वी और मंच पर
वो सामान रूप से प्रसिद्ध एवं स्वीकार्य हैं। उनकी कई सफल एल्बम आ चुकी हैं जैसे
कि- शगुन- निर्गुण, पहली पीरीतिया, भक्ति दर्शन,लागल पिरितिया..
आदि। ये हमारे लिए गर्व की बात है कि देश के राष्ट्रपति और बड़े बड़े बुद्धिजीवियों
के सामने उन्होंने अपने संगीत को ना सिर्फ पेश किया है बल्कि इज्ज़त और प्रशंशा
कमाई है। भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा फेलोशिप और सर्वमंगला
सम्मान के साथ- साथ इन्हे अनेकों सम्मानों और पुरुकारों से सम्मानित किया गया है।
डा. परमानन्द यादव से हुई बातचीत आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
प्रश्न-
संगीत की शुरुआत कैसे हुई?
उत्तर – संगीत मेरे खून में था। मेरे दादा जी जो सहारनपुर में एक
शुगर मिल में काम करते थे बहुत अच्छे गायक थे। आल्हा और रामायण गाने में उन्हें
महारथ हासिल थी। मेरे पिता भी बहुत ही सुरीले थे तो बचपन से मुझे संगीत से लगाव
रहा। मुझे याद है कि हमारे यहाँ एक मंदिर था जो हमारे दादा जी ने बनवाया था। उस पर
काफी साधू संत आते थे जहाँ भजन गाने का सिलसिला रात रात भर चलता था, मैं उस समय शायद
पांच साल के आस- पास का था,
जब मैं यहाँ बड़े
चाव से भजन गाया करता था और सराहा भी जाता था। तो इस तरह एक बड़े ही अध्यात्मिक और
संगीतमय वातावरण में बचपन बीता। फिर जब शिक्षा आरम्भ हुई तो हाई स्कूल और इंटर
कॉलेज में हमारा एक विषय संगीत भी था। मुझे याद है उन दिनों आस पास का कोई भी
सांस्क्रतिक आयोजन हमारे बिना पूर्ण नहीं होता था और मैं इश्वर की कृपा से हर विधा
में टॉप करता था, चाहे वो लोकगीत
हो, भजन हो या
शास्त्रीय संगीत हो। हमारे प्रथम संगीत गुरु आदरणीय रामवृक्ष तिवारी जी के
मार्गदर्शन से हमने बनारस युनिवर्सटी में दाखिला लिया और वहां से संगीत सीखा।
उन्ही दिनों आदरणीय कुमार गन्धर्व जी को सुना करता था और मन में कहीं एक लालसा थी
कि, एक दिन इनसे
मिलूंगा ज़रूर और फिर शायद मेरे कोई पूर्व जन्म के पुण्य रहे होंगे, हमारे माता पिता
या बड़ों का पुण्य और आशीर्वाद रहा होगा कि बीसवीं शताब्दी के महानतम गायक ने हमें
अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया और गुरु शिष्य परंपरा में उन्होंने हमें तालीम
दी।
प्रश्न- मैंने तो सिर्फ गुरूजी जी बारे में सुना ही है
लेकिन, आपने तो उनसे
सीखा है, उनके बारे में
कुछ और बताईये।
उत्तर -
देखिये बीसवीं शताब्दी में एक से एक धुरंधर गायक पैदा हुए जैसे बड़े गुलाम
अली, पंडित ओमकार
ठाकुर, गिरजा देवी जी, अमीर खां साहब, और सबकी अपनी
खासियत थी मगर मैं ऐसा मानता हूँ की कुमार गन्धर्व जी सबसे अलग थे, वो बहुत ही
क्रिएटिव कलाकार थे। उन्होंने इस बात पर गहरा शोध किया किया कि आख़िर शास्त्रीय
संगीत आम आदमी क्यूँ नहीं सुनता। उन्होंने मालवा, मध्य प्रदेश की कुल 350 लोक धुनों को
इक्कठा किया और 11 स्वतंत्र और 11 जोड़ रागों का
यानी कुल बाईस रागों का इजाद किया। वो
अपने आप में संगीत का समन्दर थे। साथ ही साथ उतने ही सरल और सहज भी थे। हमें याद
है कि जब पहली बार हमारी उनसे मुलाक़ात हुई तो हम एक सिफ़ारिशी चिठ्ठी उनके नाम लिखा
कर ले गए थे, जिसे देखकर
उन्होंने कहा कि “अरे इसकी क्या
ज़रुरत थी, तुम आ गए बस इतना
काफी है” हमें याद है उन
दिनों हमारी जेब में पैसे तो होते नहीं थे तो, एक बार उन्होंने हमें एक गर्म शाल और एक हज़ार रूपये दिए और
एक पिता की तरह समझाया की पैसे संभाल कर खर्च करना। तो ये हमारा सौभाग्य रहा कि
इतने महान गायक से हमें सीखने का अवसर मिला और उनका पिता तुल्य प्रेम, आशीर्वाद हमें
मिला।
प्रश्न- मुंबई का
सफ़र कैसा रहा।
उत्तर – हम मार्च 1994 में मुंबई ये सोचकर आये थे कि संगीत में डाक्टरेट किया है
कुमार गन्धर्व से सीखा है तो ज़रूर कुछ अच्छा काम या नौकरी मिल जाएगी। मगर ऐसा हुआ
नहीं। बहुत संघर्ष किया , कभी- कभी तो लगता
था कि, अब जीवन में आगे
क्या होगा, समन्दर में कूद
के मर जाना पड़ेगा क्या? लेकिन हमने कभी
हिम्मत नहीं हारी। जब कहीं नौकरी नहीं मिली तो हमने सोचा की चलो कोई बात नहीं खुद
अपना एक मंच बनायेंगे, जिससे और भी कुछ
संगीत के पथिक लाभान्वित हो सकें और फिर हमने अपने गुरु जी नाम पर “कुमार गन्धर्व
फाउन्डेशन” बनाया और उसके
ज़रिये संगीत के अनेकों आयोजन किये, पुरूस्कार दिए और अब बच्चों को सिखाने का काम भी सतत चल रहा
है।
प्रश्न- जहाँ तक
यादव बिरादरी का सवाल है तो, हमारी बिरादरी
शास्त्रीय संगीत में नहीं के बराबर है। ऐसा क्यूँ है और कैसे हमारा दखल इस विधा
में भी बढ़े?
उत्तर – यादव लोग शुरुआत से लोक संगीत में बहुत अव्वल रहे क्योंकि
पशुओं से सम्बंधित जीवनचर्या थी तो आल्हा, बिरहा, लोरकाइन जैसी विधाओं में हमारा कोई सानी नहीं रहा लेकिन, धीरे- धीरे हमने
अपनी ये धरोहर भी खो दी और नया कुछ अपनाया भी नहीं यही कारण है कि, संगीत में आज
हमारी उपस्तिथि नहीं के बराबर रह गयी। हमारे लोग सरकारों में रहे या जो लोग धन बल
में समर्थ रहे उन्होंने कभी भी लोकगीत की हमारी पूँजी को संरक्षित करने का काम
नहीं किया, जो कि किया जाना
चाहिए था। जहाँ तक अब अपनी दखल इसमें बढ़ाने की बात है तो, उसका एक ही
रास्ता है वो चाहे संगीत के क्षेत्र की बात हो या किसी और क्षेत्र की, कि हमें उस दिशा
में अपने बच्चों को प्रोत्साहित करना होगा, उसकी ज़रुरत और ताक़त को समझना होगा, तभी हम उस
क्षेत्र में अपनी उपस्तिथि दर्ज करा पाएंगे। जो भी समर्थ लोग हैं हमारे समाज में
उनसे भी मेरा अनुरोध है कि एक ऐसा प्लेफ़ॉर्म बनाये जहाँ हमारा बुद्धिजीवी वर्ग, चाहे वो संगीत से
हो अभिनय से हो, लेखन से हो,पत्र्कारिता से
उसे एक सही माहौल मिले आगे बढ़ने के लिए|
प्रश्न- मैं एक
बात समझ नहीं पाता हूँ कि काफ़ी यादव बंधू अपने नाम के आगे यादव नहीं लिखते, ऐसा क्यूँ?
उत्तर-
(हंसकर) मैं तो लिखता हूँ आप भी लिखते हैं रवि यादव। मैं ऐसा समझता हूँ कि
शायद एक दौर ऐसा रहा कि, जब कुछ ख़ास
क्षेत्रों में यादव सर नेम के साथ आगे बढ़ने में हमारे लोगों ने काफ़ी मुश्किलें
झेलीं और उसके फलस्वरूप यादव नाम छुपाना शुरू किया लेकिन, अब समय बदल रहा
है और पूरे गर्व से लोग लिख रहे हैं। क्योंकि अलग- अलग क्षेत्रों में अब यादव अपनी
उपस्तिथि दर्ज करा रहे हैं। अब जैसे आप लोगों ने ये यदुवंश गौरव पत्रिका शुरू की
जो यादवों पर ही आधारित है तो मैं ऐसा मानता हूँ कि, ये एक बहुत ही अच्छी शुरुआत है। जिस तरह आप
अलग- अलग क्षेत्रों से यादवों को चुनकर इस पत्रिका के माध्यम से समाज तक पहुँचाने
का काम कर रहे है वो सरहनीय है। दरसल जब हम कोई आदर्श काम करते हैं तो, दुसरे समाज में
भी ये सन्देश जाता है कि, देखों यादव समाज
में लोग इस तरह का काम कर रहे हैं, हमारा सम्मान दुसरे समाजों में बढ़ता है और आने वाली पीढ़ी
उनसे प्रभावित होकर वैसा बनने की कोशिश करती है।
प्रश्न – कोई सन्देश
बिरादरी बंधुओं के नाम ?
उत्तर -
मैं सिर्फ एक अनुरोध करूंगा कि शिक्षा के महत्त्व को समझे। शिक्षा इंसान का
पूरा व्यक्तित्व बदल देती है। ज्यादा से ज्यादा भाषाएँ सीखें, मैं तो कहता हूँ
हिंदी सीखे तो, साथ ही साथ
अंग्रेजी भी अपने बच्चों को सिखाएं क्योंकि आजकल ये रोज़ी- रोटी की भाषा है। जो
जहाँ जिस हैसियत में है वो अपने देश समाज के लिए जो कर सकता है, करे। बिना ये
सोचे कि उसे इससे क्या फायदा होगा। मेरी शुभकामनायें यदुवंश गौरव के सार्थक प्रयास
के लिए और सभी यादव बंधुओं को सदर प्रणाम।
संपर्क- डा.
परमानन्द यादव 9892451714
/ 8655164546