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प्रबंध संपादक-अनिल यादव (इंजीनियर), एसोसिएट एडिटर- राव धर्मेंद्र (कोसली), संरक्षक- राजेंद्र बहादुर यादव (मुंबई), राजकुमार यादव (कापसहेड़ा), मुकेश यादव (नांगलोई), सुबोध यादव (कापसहेड़ा), महेंद्र सिंह यादव (गुरुग्राम), अशोक यादव (बहरोड़), राजेंद्र यादव (गुरुग्राम), विक्रम यादव, रविन्द्र यादव (दिल्ली), संजय यादव (लखनऊ), मदन सिंह यादव (इंदौर), छती यादव (दिल्ली), ओ. पी. यादव (द्वारका-दिल्ली), बाबूलाल यादव (द्वारका-दिल्ली), उम्मीद सिंह (गुरुग्राम), नवीन यादव (उप्र), श्रीभगवान यादव (दिल्ली) . मार्गदर्शक- आर एन. यादव (कल्याण), जगपती यादव (दहिसर), राधेमोहन यादव (रिको रबर), प्रेमसागर यादव, अवधराज यादव (अध्यक्ष-अ. भा. व. युवा यादव महासभा, उत्तर प्रदेश)

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अखिलेश यादव के समर्थन में भाजपा ?

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लखनऊ। ताजा खबरों के अनुसार अखिलेश यादव जहाँ नई पार्टी का गठन कर सकते हैं वहीँ खबर यह भी है कि, भाजपा अखिलेश यादव के नेतृत्व में नई सरकार बनाने का नया दांव खेल सकती है। उत्तर प्रदेश में आने वाले समय में एक और महागठबंधन देखने को मिल सकता है, जिससे सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के साथ बसपा और कांग्रेस के भी होश उड़ जाएंगे। उसके बाद प्रदेश चुनावों का ऐसा समीकरण बनेगा कि चुनावों से पहले किए जा रहे सभी सर्वे औैर पोल धरे के धरे रह जाएंगे। वो गठबंधन होगा अखिलेश यादव और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का।
 यूपी के 2017 चुनावों से पहले जिस तरह से प्रदेश के राजनीतिक समीकरण बदल रहे हैं। ऐसे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि कब क्या हो जाए? अखिलेश की अपने पिता की पार्टी से नाराजगी और नई पार्टी बनाने की चर्चा ने चुनाव का पूरा रंग बदलकर रख दिया है। ऐसे में बीजेपी की ओर से अपनी रणनीति में बदलाव करने का मन बना रही है। आने वाले दिनों में प्रदेश के लोगों को एक नया गठबंधन देखने को मिल सकता है। वो गठबंधन है अखिलेश यादव और नरेंद्र मोदी का होगा। अखिलेश और बीजेपी के पदाधिकारियों के साथ मुलाकात होने की बात भी सामने आ रही हैं। सूत्रों की मानें तो इस संबंध में अखिलेश और नरेंद्र मोदी भी आपस में मिल सकते हैं।
 इस गठबंधन से सभी पार्टियों के अलावा प्रदेश ही नहीं देश के सभी गठबंधनों की नीदें हराम हो जाएगी। जानकारों की मानें तो ऐसा हुआ तो ये प्रदेश का ही नहीं देश का सबसे बड़ा गठबंधन होगा। इससे अखिलेश यादव को तो फायदा होगा ही साथ ही बीजेपी को भी बड़ा फायदा होगा। भाजपा की नेतृत्व को सीएम फेस की चिंता खत्म हो जाएगी। राज्यसभा में भी बीजेपी की स्थिति थोड़ी और मजबूत होगी। जानकारों के अनुसार अखिलेश और मोदी के काम करने का तरीका एक जैसा है। दोनों ही काम के मामले में पारदर्शी हैं। दोनों को ही अपने-अपने खेमे से समर्थन मिला हुआ है। दोनों ही फैन फॉलोइंग जबरदस्त है। ऐसे में दोनों ही जोड़ी यूपी में बड़ा कमाल करने में सक्षम है।
 आखिर इस गठबंधन की जरुरत क्यों महसूस की जा रही है? राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो मौजूदा समय में सपा में जो मंत्री और नेता हैं। उनसे पब्लिक काफी आजिज आ चुकी है। वहीं अखिलेश को इस पार्टी और सरकार में उतना काम करने का मौका नहीं मिला है। ऐसे में अखिलेश को मोदी के साथ सरकार बनाने में काम करने का पूरा मौका मिलेगा। साथ ही भाजपा के सरकार के साथ जुड़े होने से करप्शन होने की गुंजाइश भी कम ही रहेगी।
साभार-पत्रिका 

जिसकी सोच में दिलेरी की जागरूकता है, वही राजेंद्र बहादुर है ...



-विजय यादव

 तुलसी पंछी के पिए घटे न सरिता नीर, धरम किये धन न घटे कह गए दास कबीर।
 कुछ ऐसी ही सोच को लेकर समाज के सामने खुद को समर्पित करने वाले श्री राजेंद्र बहादुर यादव आज समाज के तमाम लोगों के लिए एक आदर्श बन गए हैं। १८ साल की उम्र में १९८८ को जौनपुर के मुगराबादशाहपुर विधानसभा क्षेत्र के सरायकेवट गांव से चलकर मुंबई पहुंचने वाले इस सख्स ने कभी नहीं सोचा होगा कि, पिताजी से विरासत में मिले जिस एक टैंकर से कारोबार शुरू कर रहा है आज वह करीब एक हजार परिवारों के भरण-पोषण का कारक बन जाएगा। आप चाहें तो, इसे सीधे-सीधे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि, पिताश्री रामफेर यादव ने एक चलते-फिरते वाहन के रूप में अपने आशीर्वाद के पुरे भण्डार को उड़ेल दिया था। कहते हैं जिसका उद्देश्य महान हो उसे भाग्य भी नहीं रोक सकता। इनकी भी सोच शुरू से ही कुछ करने की रही। वह भी ऐसा कार्य जो स्वयं तक सिमित नहीं होकर बल्कि ऐसा फलदार वृक्ष जो समाज के हर तबके के काम आ सके। इसी सोच ने इन्हें अपने कार्यों में आगे बढ़ने की ताकत दी और आज मुंबई से जौनपुर (यूपी) तक लोगो के ह्रदय में इन्होंने घर बना लिया।

 अपने दो भाइयों में सबसे बड़े राजेंद्र बहादुर यादव का आज भरा पूरा परिवार है। छोटे भाई श्री विजय बहादुर यादव का भी कारोबार और सामाजिक कार्यों में निरंतर सहयोग मिलता रहता है।  चार पुत्र महेंद्र यादव, सुरेंद्र यादव, अशोक कुमार यादव व अंकित भी अपने पिताजी के कार्यों में अपने हाथ बंटाते रहते हैं। ऐसे तो शुरूआती जीवन बहुत कठिनाइयों भरा नहीं था, परंतु अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए चुनौतियाँ बहुत थी। पिताजी ने बुलंद ईमारत के लिए एक टैंकर के रूप में मजबूत नीवं तो बना दी थी, लेकिन आगे का काम करने के इक मजबूत हौसले की जरुरत थी। राजेंद्र बहादुर ने इस काम को अपने नाम के मुताबिक बहादुरी और बुद्धि से आगे बढ़ाना शुरू किया, जो आज उन्हें समाज के सिंहासन पर सबसे ऊँची शिखर पर पहुंच दिया।
 सामाजिक रूप से जानने वाले गणमान्य संभवतः अभी तक यही जानते होंगें कि, राजेंद्र बहादुर यादव एक व्यावसायिक और राजनीतिक व्यक्ति हैं। यह सच भी है कि, आज वह महाराष्ट्र समाजवादी पार्टी के उपाध्यक्ष होने के साथ-साथ अखिल भारतवर्षीय यादव महासभा के महाराराष्ट्र उपाध्यक्ष और यादव समाज ट्रस्ट के राष्ट्रीय महासचिव भी हैं।  इसके आलावा स्थानीय स्तर के तमाम संगठनो को प्रेरणा दे रहे हैं। अब हम जो बताने जा रहे हैं वह निश्चित रूप से आपके लिए नई जानकारी होगी। इसे इनके सेवाभाव का दूसरा स्वरूप भी कहा जा सकता है। जौनपुर के जिस सरायकेवट गाँव में जन्मे थे आज उसके कर्ज को उतारने या यूँ कहें अपनी मातृभूमि के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने के लिए एक ऐसे सरस्वती मंदिर की स्थापना करने जा रहे हैं, जहाँ गांव की माटी में खेलने वाला बच्चा भी उच्च शिक्षा को प्राप्त कर सके। इसके लिए लगभग तैयारियां पूरी हो चुकी है। देश के अलग-अलग हिस्सो से श्रेष्ठ शिक्षकों को गाँव लाया जा रहा है, जो शहरी विद्यालयों से भी अच्छी और आधुनिक शिक्षा देने में सक्षम हों। केंद्रीय बोर्ड के पैटर्न पर पढाई, हाई टेक्नोलॉजी से युक्त शिक्षा प्रणाली, पूरी तरह से कम्प्यूटराइज्ड सिस्टम और पर्यावरण के अनुकूल शौर्य ऊर्जा से संचालित व्यवस्था। इसके पीछे की सोच यह है कि, अगले २० सालों तक पूरी ईमानदारी और निष्ठां से काम किया गया तो, आने वाली पीढ़ी अपना ही नहीं बल्कि पुरे मुगराबादशाहपुर क्षेत्र को एक आदर्श इलाके के रूप में भारत ही नहीं दुनिया के मानचित्र पर अंकित कर देगा। राजेंद्र बहादुर का कहना है कि, जब तक समाज का हर बच्चा १०० प्रतिशत सम्पूर्ण रूप से शिक्षित नहीं हो जाता तब तक देश भर में समाज के समर्थ लोगों को आगे आकर यह कार्य करना होगा।
 शिक्षा के साथ-साथ ग्रामीण स्वास्थ्य पर भी बड़ा काम हो रहा है। मुगराबादशाहपुर क्षेत्र के हजारो जरूरतमंद लोगों का स्वास्थ्य बीमा कराने का कार्य चल रहा है। इसके साथ ही चेरिटेबल ट्रस्ट के माध्यम से अलग-अलग गांवों में दवाखाने खोलने की भी मजबूत तैयारियां पूरी कर ली गई हैं, जहाँ हर व्यक्ति का प्राथमिक स्तर पर निःशुल्क उपचार होगा। इसके आलावा कई सेवा कार्य तो पहले से ही क्षेत्र में चलाये जा रहे हैं। जैसे अन्नदान, कन्यादान व वस्त्र वितरण आदि। इनके अन्नदान का तरीका भी निराला है। गांव में इनकी करीब ९० बीघा ज़मीन है। इस ज़मीन से पैदा होने वाले अनाज के एक भी दाने को बेच नहीं जाता बल्कि इसे सुरक्षित तरीके से स्टोर कर दिया जाता है। किसी की बेटी की सादी, अथवा अन्य प्रसंगों में आवश्यकता अनुशार सहयोग के रूप में दे दिया जाता है। खास बात यह है कि, अन्नदान की इस प्रकिरिया को पूरी तरह से गुप्त रखा जाता है। राजेंद्र बहादुर यादव का मानना है कि, ऐसे दान व सहयोग को गुप्त ही रखा जाना चाहिए। भगवान श्री कृष्ण के अनंत भक्त राजेंद्र बहादुर का कहना है कि, सेवा भाव से किये गए कार्य को प्रचारित करने का अधिकार हमें नहीं है क्योंकि जो मै दे रहा हूँ वह हमारा स्वयं का अर्जित किया हुआ नहीं है बल्कि प्रभु श्री कृष्ण का है। हम तो निमित्त मात्र भर हैं। ठंढ और अन्य मौसम में कंबल व दूसरे वस्त्रों का दान भी इसी नीति और विचारों के तहत किया जाता है।
 राजेंद्र बहादुर यादव द्वारा बड़ी संख्या में सोलर लाईट भी क्षेत्र में लगाए गए हैं जहाँ बच्चे रात्रि के समय समूह में बैठकर पढाई करते हैं। बड़े-बुजुर्गों के लिए सोलर लाइट रात में राह दिखाने का काम करता है। सोलर लाइट लगाने में इन्होंने कभी जातीय व धार्मिक भेद-भाव नहीं रखा। इनके द्वारा लगाए गए सोलर लैम्प जहाँ समाज के अलग-अलग बस्तियों में उजाला फैला रहा है वहीँ धार्मिक स्थलों मंदिर-मस्जिदों में भी रोशनी बिखेर रहा है। इनका कहना है कि, जब सूरज अपनी रोशनी बिखेरते समय कभी भेद-भाव नहीं करता तो मैं कौन होता हूँ प्रकृति के खिलाफ जाने वाला। सबसे अहम बात यह है की इतने बड़े कार्य को करने के लिए निश्चित रूप से धन की बड़ी आवश्यकता होगी, सो उसका भी इंतजाम हो गया है। यूपी में अलग-अलग जगहों पर तीन पेट्रोल पम्प खोले जा रहे हैं जिनसे होने वाली इनकम का पूरा पैसा १०० प्रतिशत चेरिटी पर खर्च होगा। इस कड़ी में पहला पेट्रोल पम्प विंध्याचल पम्प के नाम से शुरू भी हो गया है। अगले दो पम्प जल्द ही शुरू होने की स्थिति में हैं।

 समाज सेवा की इतनी बड़ी सोच आप में आई कहाँ से ? इस सवाल के जवाब में बड़ी सरलता से जवाब देते हैं "हमारे सबसे बड़े जीवन दर्शक माता-पिता हैं जिनकी सोच और विचारधारा हमें हमेशा कुछ नया करने की हिम्मत और प्रेरणा देती रहती है। इसके अलावा सामाजिक सरोकार के हमारे प्रेरणा मूर्ति माननीय श्री अखिलेश यादव हैं, जो फल की प्राप्ति की इच्छा लिए बगैर उत्तर प्रदेश का लगातार विकास कर रहे हैं। मैं इन सभी कार्यों का श्रेय माननीय श्री अबू आसिम आजमी को देता हूँ जो, हमारे जीवन में राजनीतिक गुरु के रूप में आये।" मानव सेवा की शिखर से भी ऊँची सोच रखने वाले आदरणीय राजेन्द्र बहादुर यादव को यदुवंश गौरव परिवार की ओर से कोटि-कोटि शुभकामनाये। ईश्वर इन्हें सदा सेवाभाव की ताकत और हिम्मत देता रहे। 

स्वर और संगीत ने एक ग्वाले को पंडित परमानन्द यादव बना दिया

-रवि यादव
(लेखक/अभिनेता/फिल्म निर्माता)
 9321389083   
संगीत का सम्बन्ध यदुकुल के साथ बहुत पुराना है। बल्कि कई गायन विधाओं का तो उदगम ही यादवों से हुआ है जैसे बिरहा। श्री कृष्ण जब मथुरा चले गए तो उनके विरह में गोप -गोपिकाओं और गोकुलवासियों ने अपना विरह व्यक्त करने के लिए जो गाया उसे बिरहा का नाम दिया गया। सर्व कलाओं से पूर्ण सिर्फ एक ही अवतार हुए हैं आज तक वह श्री कृष्णहै। उन्होंने अपने जन्म के लिए यादव कुल को चुना ये यदुवंश का सौभाग्य है। किन्तु धीरे धीरे संगीत और यादवों का रिश्ता कमज़ोर पड़ता गया या यूँ कहें कि कला साहित्य और संगीत इन सभी में यादवों की रूचि कम होती गयी या जिनकी रूचि रही भी वो आगे नहीं आ पाए। ये दुःख की बात है। धीरे धीरे यादवों की छवि जो बनाई गयी या यादवों ने स्वयं बनाई वो बहुत अच्छी तो नहीं थी। कितु इस निराशा भरे माहौल में भी हमारे समाज के काफी लोग लगातार अग्रसर है, समाज को एक नया चेहरा देने का प्रयास जारी है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में हमारी उपस्तिथि एक तरह से नहीं के बराबर ही है। किन्तु डा. परमानन्द यादव इस क्षेत्र में अपने सामाज का नाम रौशन कर रहे हैं, ये देख कर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। उन्होंने इस क्षेत्र में अपना एक ऐसा मुकाम बनाया कि, उनके नाम के साथ पंडित शब्द जुड़ गया।  पंडित डा.परमानन्द यादव
 परमानन्द यादव का जन्म 29 सितम्बर 1964 में देवरिया उत्तर प्रदेश में हुआ। संगीत उन्हें विरासत में मिली। उनके दादा जी श्री इन्द्रासन यादव साधू थे, जो रामायण एवं आल्हा गायकी में एक जाना माना नाम था। राजा महाराजाओं के यहाँ भी उन्हें बड़े सम्मान के साथ बुलाया जाता था। डा. परमानन्द के पिता श्री कृष्ण यादव बहुत ही सुरीले थे और ढोलक बहुत ही अच्छी बजाते थे। यानी सुर और ताल उन्हें विरासत में मिली। इन्होने उसी को आगे बढाते हुए बाकायदा संगीत की शिक्षा ली और बड़ी बड़ी डिग्रियां हासिल की। बनारस हिन्दू युनिवर्सटी से D. Mus (doctorate in music),  M. Mus (master of music), B. Mus (bachelor of music), Diploma in music करने के बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन संगीत को समर्पित कर दिया। वो इस बात को अपना सौभाग्य और गर्व समझते हैं कि, वो विश्व विख्यात, सुर सम्राट पद्म विभूषण आदरणीय कुमार गन्धर्व के शिष्य हैं। डा. परमानन्द ने अपने गुरु के नाम पर कुमार गन्धर्व फाउन्डेशन नाम की एक संस्था बनायी जो लगातार संगीत के प्रचार प्रसार के लिए कार्यरत है और संगीत क्षेत्र की प्रतिभाओं को सम्मानित करके उनका उत्साहवर्धन भी करती है। भजन गायकी में आज वो एक जाना माना नाम है और गायन के लिए देश भर में बड़े सम्मान के साथ बुलाये जाते हैं। सूर,कबीर,मीरा,तुलसी और ब्रह्मानंद जैसे महान कवियों के पद गाने के लिए रेडियो, टी.वी और मंच पर वो सामान रूप से प्रसिद्ध एवं स्वीकार्य हैं। उनकी कई सफल एल्बम आ चुकी हैं जैसे कि- शगुन- निर्गुण, पहली पीरीतिया, भक्ति दर्शन,लागल पिरितिया.. आदि। ये हमारे लिए गर्व की बात है कि देश के राष्ट्रपति और बड़े बड़े बुद्धिजीवियों के सामने उन्होंने अपने संगीत को ना सिर्फ पेश किया है बल्कि इज्ज़त और प्रशंशा कमाई है। भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा फेलोशिप और सर्वमंगला सम्मान के साथ- साथ इन्हे अनेकों सम्मानों और पुरुकारों से सम्मानित किया गया है। डा. परमानन्द यादव से हुई बातचीत आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
प्रश्न-  संगीत की शुरुआत कैसे हुई?
उत्तर संगीत मेरे खून में था। मेरे दादा जी जो सहारनपुर में एक शुगर मिल में काम करते थे बहुत अच्छे गायक थे। आल्हा और रामायण गाने में उन्हें महारथ हासिल थी। मेरे पिता भी बहुत ही सुरीले थे तो बचपन से मुझे संगीत से लगाव रहा। मुझे याद है कि हमारे यहाँ एक मंदिर था जो हमारे दादा जी ने बनवाया था। उस पर काफी साधू संत आते थे जहाँ भजन गाने का सिलसिला रात रात भर चलता था, मैं उस समय शायद पांच साल के आस- पास का था, जब मैं यहाँ बड़े चाव से भजन गाया करता था और सराहा भी जाता था। तो इस तरह एक बड़े ही अध्यात्मिक और संगीतमय वातावरण में बचपन बीता। फिर जब शिक्षा आरम्भ हुई तो हाई स्कूल और इंटर कॉलेज में हमारा एक विषय संगीत भी था। मुझे याद है उन दिनों आस पास का कोई भी सांस्क्रतिक आयोजन हमारे बिना पूर्ण नहीं होता था और मैं इश्वर की कृपा से हर विधा में टॉप करता था, चाहे वो लोकगीत हो, भजन हो या शास्त्रीय संगीत हो। हमारे प्रथम संगीत गुरु आदरणीय रामवृक्ष तिवारी जी के मार्गदर्शन से हमने बनारस युनिवर्सटी में दाखिला लिया और वहां से संगीत सीखा। उन्ही दिनों आदरणीय कुमार गन्धर्व जी को सुना करता था और मन में कहीं एक लालसा थी कि, एक दिन इनसे मिलूंगा ज़रूर और फिर शायद मेरे कोई पूर्व जन्म के पुण्य रहे होंगे, हमारे माता पिता या बड़ों का पुण्य और आशीर्वाद रहा होगा कि बीसवीं शताब्दी के महानतम गायक ने हमें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया और गुरु शिष्य परंपरा में उन्होंने हमें तालीम दी। 
प्रश्न-  मैंने तो सिर्फ गुरूजी जी बारे में सुना ही है लेकिन, आपने तो उनसे सीखा है, उनके बारे में कुछ और बताईये। 
उत्तर -  देखिये बीसवीं शताब्दी में एक से एक धुरंधर गायक पैदा हुए जैसे बड़े गुलाम अली, पंडित ओमकार ठाकुर, गिरजा देवी जी, अमीर खां साहब, और सबकी अपनी खासियत थी मगर मैं ऐसा मानता हूँ की कुमार गन्धर्व जी सबसे अलग थे, वो बहुत ही क्रिएटिव कलाकार थे। उन्होंने इस बात पर गहरा शोध किया किया कि आख़िर शास्त्रीय संगीत आम आदमी क्यूँ नहीं सुनता। उन्होंने मालवा, मध्य प्रदेश की कुल 350 लोक धुनों को इक्कठा किया और 11 स्वतंत्र और 11 जोड़ रागों का यानी  कुल बाईस रागों का इजाद किया। वो अपने आप में संगीत का समन्दर थे। साथ ही साथ उतने ही सरल और सहज भी थे। हमें याद है कि जब पहली बार हमारी उनसे मुलाक़ात हुई तो हम एक सिफ़ारिशी चिठ्ठी उनके नाम लिखा कर ले गए थे, जिसे देखकर उन्होंने कहा कि अरे इसकी क्या ज़रुरत थी, तुम आ गए बस इतना काफी हैहमें याद है उन दिनों हमारी जेब में पैसे तो होते नहीं थे तो, एक बार उन्होंने हमें एक गर्म शाल और एक हज़ार रूपये दिए और एक पिता की तरह समझाया की पैसे संभाल कर खर्च करना। तो ये हमारा सौभाग्य रहा कि इतने महान गायक से हमें सीखने का अवसर मिला और उनका पिता तुल्य प्रेम, आशीर्वाद हमें मिला। 
प्रश्न- मुंबई का सफ़र कैसा रहा। 
उत्तर हम मार्च 1994 में मुंबई ये सोचकर आये थे कि संगीत में डाक्टरेट किया है कुमार गन्धर्व से सीखा है तो ज़रूर कुछ अच्छा काम या नौकरी मिल जाएगी। मगर ऐसा हुआ नहीं। बहुत संघर्ष किया , कभी- कभी तो लगता था कि, अब जीवन में आगे क्या होगा, समन्दर में कूद के मर जाना पड़ेगा क्या? लेकिन हमने कभी हिम्मत नहीं हारी। जब कहीं नौकरी नहीं मिली तो हमने सोचा की चलो कोई बात नहीं खुद अपना एक मंच बनायेंगे, जिससे और भी कुछ संगीत के पथिक लाभान्वित हो सकें और फिर हमने अपने गुरु जी नाम पर कुमार गन्धर्व फाउन्डेशनबनाया और उसके ज़रिये संगीत के अनेकों आयोजन किये, पुरूस्कार दिए और अब बच्चों को सिखाने का काम भी सतत चल रहा है। 
प्रश्न- जहाँ तक यादव बिरादरी का सवाल है तो, हमारी बिरादरी शास्त्रीय संगीत में नहीं के बराबर है। ऐसा क्यूँ है और कैसे हमारा दखल इस विधा में भी बढ़े?
उत्तर यादव लोग शुरुआत से लोक संगीत में बहुत अव्वल रहे क्योंकि पशुओं से सम्बंधित जीवनचर्या थी तो आल्हा, बिरहा, लोरकाइन जैसी विधाओं में हमारा कोई सानी नहीं रहा लेकिन, धीरे- धीरे हमने अपनी ये धरोहर भी खो दी और नया कुछ अपनाया भी नहीं यही कारण है कि, संगीत में आज हमारी उपस्तिथि नहीं के बराबर रह गयी। हमारे लोग सरकारों में रहे या जो लोग धन बल में समर्थ रहे उन्होंने कभी भी लोकगीत की हमारी पूँजी को संरक्षित करने का काम नहीं किया, जो कि किया जाना चाहिए था। जहाँ तक अब अपनी दखल इसमें बढ़ाने की बात है तो, उसका एक ही रास्ता है वो चाहे संगीत के क्षेत्र की बात हो या किसी और क्षेत्र की, कि हमें उस दिशा में अपने बच्चों को प्रोत्साहित करना होगा, उसकी ज़रुरत और ताक़त को समझना होगा, तभी हम उस क्षेत्र में अपनी उपस्तिथि दर्ज करा पाएंगे। जो भी समर्थ लोग हैं हमारे समाज में उनसे भी मेरा अनुरोध है कि एक ऐसा प्लेफ़ॉर्म बनाये जहाँ हमारा बुद्धिजीवी वर्ग, चाहे वो संगीत से हो अभिनय से हो, लेखन से हो,पत्र्कारिता से उसे एक सही माहौल मिले आगे बढ़ने के लिए|
प्रश्न- मैं एक बात समझ नहीं पाता हूँ कि काफ़ी यादव बंधू अपने नाम के आगे यादव नहीं लिखते, ऐसा क्यूँ?
उत्तर-  (हंसकर) मैं तो लिखता हूँ आप भी लिखते हैं रवि यादव। मैं ऐसा समझता हूँ कि शायद एक दौर ऐसा रहा कि, जब कुछ ख़ास क्षेत्रों में यादव सर नेम के साथ आगे बढ़ने में हमारे लोगों ने काफ़ी मुश्किलें झेलीं और उसके फलस्वरूप यादव नाम छुपाना शुरू किया लेकिन, अब समय बदल रहा है और पूरे गर्व से लोग लिख रहे हैं। क्योंकि अलग- अलग क्षेत्रों में अब यादव अपनी उपस्तिथि दर्ज करा रहे हैं। अब जैसे आप लोगों ने ये यदुवंश गौरव पत्रिका शुरू की जो यादवों पर ही आधारित है तो मैं ऐसा मानता हूँ कि, ये एक बहुत ही अच्छी शुरुआत है। जिस तरह आप अलग- अलग क्षेत्रों से यादवों को चुनकर इस पत्रिका के माध्यम से समाज तक पहुँचाने का काम कर रहे है वो सरहनीय है। दरसल जब हम कोई आदर्श काम करते हैं तो, दुसरे समाज में भी ये सन्देश जाता है कि, देखों यादव समाज में लोग इस तरह का काम कर रहे हैं, हमारा सम्मान दुसरे समाजों में बढ़ता है और आने वाली पीढ़ी उनसे प्रभावित होकर वैसा बनने की कोशिश करती है। 
प्रश्न कोई सन्देश बिरादरी बंधुओं के नाम ?
उत्तर -  मैं सिर्फ एक अनुरोध करूंगा कि शिक्षा के महत्त्व को समझे। शिक्षा इंसान का पूरा व्यक्तित्व बदल देती है। ज्यादा से ज्यादा भाषाएँ सीखें, मैं तो कहता हूँ हिंदी सीखे तो, साथ ही साथ अंग्रेजी भी अपने बच्चों को सिखाएं क्योंकि आजकल ये रोज़ी- रोटी की भाषा है। जो जहाँ जिस हैसियत में है वो अपने देश समाज के लिए जो कर सकता है, करे। बिना ये सोचे कि उसे इससे क्या फायदा होगा। मेरी शुभकामनायें यदुवंश गौरव के सार्थक प्रयास के लिए और सभी यादव बंधुओं को सदर प्रणाम।

संपर्क- डा. परमानन्द यादव 9892451714 / 8655164546

स्वर्ण तिलक "हेमचन्द्र" यादव


-विजय यादव
संपादक-यदुवंश गौरव
9664640077
मंज़िलें नहीं रास्ते बदलते है
जगा लो जज्बा जीतने का
किस्मत कि लकीरें चाहे बदले बदले
वक़्त जरूर बदलता है
 हौसलाअफ़ज़ाई में किसी शायर के लिखे यह शब्द उस शख्स पर बखूबी लागू होते है जो, 80 के दशक में शहर की उस राह पर चल पड़ा था जहाँ सपनो का हसीन संसार होता है। उम्मीदों की नई किरणे होती हैं, इन सब के बीच मुश्किलों का वह दौर भी होता है, जब अादमी टूटने लगता है। काबिले तारीफ वह है जो, इन मुश्किलों की अांधी को चीरता हुअा अागे निकल जाए। बचपन से ही कुछ नया कर गुजरने की चाह लिए वह अपने गांव की ख़ुश्बू, अमियाँ की छाँव, गांव की नौटंकी और उस दूधिया की पहचान छोड़ मुंबई पहुँच गया, जहां उसके जीवन का नया इतिहास रचा जाना था। वह सोना था, ना कनक था और ना ही कुंदन फीर भी माँ-बाबूजी की नजर में वह "हेम" था। कहने का तात्पर्य 100 प्रतिशत शुद्ध तपनीय सोना। हेम का अर्थ भी तो सोना ही होता है। तभी तो वह "हेम" का चन्द्र अर्थात "हेमचन्द्र"
 हम बात कर रहे है उस शख्सियत की जो, अाज कृष्ण की कर्मभूमि गुजरात से पुरे देश में अपनी कर्मठता और मेहनत की खुशबु फैला रहा है। गुजरात से मुंबई, दिल्ली और यूपी-बिहार तक के यादवों मे सभी का प्यारा और दुलारा बन गया है। नाम है हेमचन्द्र यादव। उत्तर प्रदेश, जौनपुर जिले के सुजानगंज बाजार स्थित गहरपारा गांव में जन्मे हेमचन्द्र यादव आज पुरे देश में अपनी मेहनत और योग्यता को लेकर समाज के लिए एक मिशाल बने हुए हैं। आज गुजरात के गांधीधाम में अपनी भरे-पूरे परिवार के साथ तीन-तीन कंपनियों का सञ्चालन कर रहे हेमचन्द्र यादव कभी गांव के दूधहारा (दूध बेचनेवाला) हुआ करते थे।  बचपना आर्थिक दिक्क्तों में बिता। पिता श्री बुद्धिराम यादव पश्चिम बंगाल के आसनसोल में नौकरी करते थे। प्राथमिक शिक्षा वहीँ हुई इसके बाद आगे की पढाई के लिए खर्च बढ़ा तो गाँव गए। इनकी कुशाग्र बुद्धि को पिताजी ने आसनसोल में ही भांप लिया था, जब यह कक्षा में जिला प्रथम आये थे।
परिंदो को मिलेगी मंज़िल एक दिन
ये फैले हुए उनके पर बोलते है
और वही लोग रहते है खामोश अक्सर
ज़माने में जिनके हुनर बोलते है।
   1981 में इन्होने ने इलाहाबाद से बीए पास किया। इच्छा थी सिविल सेवा में जाने की लेकिन, वक्त की चाह कुछ और थी। बीए की पढाई के बाद गांव में ही एक साल का समय इधर-उधर में गुजर गया। इस बीच फ़ुटबाल और गांव की नौटंकी मनोरंजन और समय पास का जरिया रहा। इच्छा हुई कुछ किया जाय। मौसा जी के गांव रयां से एक तीन हजार रुपये की भैंस लाये और शुरू कर दिया दूध का व्यवसाय। भैंस साढ़े तीन लीटर दूध देती थी वही लेकर सुबह-सुबह पड़ोस के बाजार बेलवार पहुँच जाते थे। कुछ लोग दूध बेचता देख ताने भी कसते थे। हर दिन अलग-अलग सवाल उठते थे कि, तुम तो आईएएस बनने वाले थे और दूध बेच रहे हो। ये ऐसे सवाल थे जिसका जवाब देना उस समय मुश्किल होता था। हेमचन्द्र बताते हैं कि, यही सवाल हमारे लिए हर दिन नई ऊर्जा पैदा करते थे। तमाम सवालों से माँ कभी-कभी बड़ी दुखी हो जाती थी, तब मैं नाटक की कहानियों के मुख्य नायक की कहानी से माँ को समझाता था। देखो पहले नायक कितना परेशान होता है, बाद में जीत उसी की होती है। चिंता ना करो मेहनत का फल बड़ा मीठा होता है।
 एक दिन भाई हरिश्चन्द्र यादव के बुलावे पर मुंबई चला गया। घर-परिवार, मित्र-यार सभी व्यथित थे। कृष्ण की तरह मैं भी यही कहकर घर से निकला था, बस कुछ ही दिनों में लौट आऊंगा। समय को कुछ और मंजूर था। भाई हरिश्चन्द्र ने जिनके कहने पर मुंबई बुलाया था, उनका नाम श्री राजेश्वर दुबे था। दुबे जी प्रतापगढ़ जिले के निवासी थे।  उन्होंने सीताराम चीलप नाम के एक ठेकेदार के साथ शिवड़ी टिम्बर पोर्ट पर काम दिला दिया। सुबह साढ़े आठ बजे पोर्ट पहुँच जाता था और रात साढ़े ग्यारह- बारह बजे घर लौटता था। हाथ गाड़ी खींचता था।  - मजदूरों का काम अकेले करता था। इस तरह एक-डेढ़ महीने में थक कर चूर हो गया था और एक दिन अचानक नौकरी छोड़ दी। हेमचन्द्र आगे बताते हैं कि, हमने एक दिन अपनी सभी मार्कसीट फाड़ दी। हमें लगने लगा जब यही काम करना है तो, इस शिक्षा सर्टिफिकेट की क्या जरुरत ? शेक्सपियर की वह बात भी याद आने लगी कि, उन्होंने कैसे लिखा है " सक्सेज इज नॉट मैटर ऑफ़ लक........ हमें लगा की यह सब ऐसे ही किसी को झूठा साहस देने के लिए लिख दिया होगा।
 नौकरी छोड़ने के बाद तरह-तरह की बातें दिमाग में रही थी। सोचता था कि, गांव चलकर एक नाटक मंडली शुरू कर दूंगा साथ में अपना पुस्तैनी दूध का धंधा। इसी दौरान राजेश्वर दुबे को खबर मिली कि, हमने काम छोड़ दिया है। उन्होंने बुलाकर हमें एक थप्पड़ मारा और कहा की " आज से ही दुबारा काम पर लग जाओ, यह कुछ समय की मेहनत तुम्हारा भाग्य बदल देगी" यह बताते हुए हेमचन्द्र अचानक भाउक हो जाते हैं। फिर आगे कहते हैं " उस समय परिवार की तमाम बातें दिमाग में किसी चलचित्र की तरह चलने लगी, माँ की बातें, पिता की तमाम इच्छाएं। मन ने एक बार फिर शिवड़ी पोर्ट जाने का विचार बना लिया। नियमित काम पर जाने लगा। वही हाथ गाड़ी, वही लकड़ियों का ढेर, पूरा वक्त बंदरगाह पर बीतता। अगर मन की कोई बात कहनी भी हो तो, साथी के रूप में उन्ही बेजान लकड़ियों से कुछ बाते कर मन हल्का कर लेता था। यह सिलसिला चल ही रहा था कि, एकदिन अचानक एक जरुरी लेटर लिखना था। उस दिन कोई वरिष्ठ कर्मचारी नहीं आया था जो पत्र लिख सके। सीताराम की परेशानी देखकर हमने खुद कहा, अगर आप कहें तो मैं लेटर लिख दूँ। उसने हाँ कह दी। हमने अंग्रेजी में पत्र लिखा। पत्र देखने के बाद कंपनी का डायरेक्टर बहुत खुश हुआ। उसने सीताराम चीलप से बुलवाया और हमारे पत्र सुन्दर रायटिंग की बहुत तारीफ की। बस समझिए यहीं से भाग्य करवट लेने की तैयारी में था। 300 सौ रुपये की मासिक तनख्वाह पर हमें मजदूरों का काम छोड़ आफिस में काम मिल गया। 
 एक महीने बाद हेमचन्द्र यादव को 300 रुपये की पहली तनख्वाह मिली। बताते हैं कि, 20-20 रुपये के कुल 15 नोट थे, आज भी उन रुपयों का रंग याद है। घर पहुंचकर 10 बार तो उसकी गिनती की होगी। मैं शब्दों में अपनी उन खुशियों का बयान नहीं कर सकता। उस दिन हमें बिलकुल थकान नहीं लग रही थी। ईश्वर ने यहीं से हम पर अपनी कृपा दृष्टि बढ़ानी शुरू की और एक महीने बाद तनख्वाह बढ़ कर मासिक सात सौ रुपये हो गई। यहीं से उम्मीदों किरण दिखाई देने लगी। धीरे-धीरे कुछ पैसों का जुगाड़ कर कुर्ला के हलावपुल में एक छोटा सा घर ले लिया, घर क्या हमारे लिए तो वह किसी हवेली से कम नहीं थी। आज भी उसे रखा हूँ, जब भी कभी मुंबई जाना होता है तो कुछ घंटे ज़मीन पर सोकर जरूर बिताता हूँ। घर की आधी दीवार ईंट की तो आधी दीवार आज भी टीन (पत्रा) का बना हुआ है। बच्चों को भी दिखा लाया हूँ। बच्चे देखकर आश्चर्य में पड़ते हैं, कहते हैं पापा आप यहाँ रहते थे ? और मैं सहज ही जवाब दे देता हूँ "बेटा मेरे लिए तो, यह आज भी हवेली है, इस ज़मीन पर सोकर जो सुख मुझे मिलता है वह किसी आलिशान कोठी-बंगले में नहीं।
 करीब दो साल बाद 1986 में राधा-कृष्णा शिपिंग कंपनी ने हमें गुजरात के कांडला बंदरगाह पर कंपनी का इंचार्ज बनाकर भेज दिया यूँ मानो हमें द्वारकाधीश के पास भेज दिया हो। बशीर बद्र की वह कविता याद आई " जबसे चला हूँ राह पर मिल का पत्थर नहीं देखा ....... पत्थर तो क्या हमने तय कर लिया कि, अब तो घड़ी भी नहीं देखनी है। कुछ सालों बाद नौकरी छोड़ दी और अपना खुद का कारोबार शुरू किया। शिवम सीट्रांस यदु इम्पेक्स नाम से अलग-अलग कम्पनिया हैं। कुल डेढ़ सौ लोगों का स्टाफ है। इसके साथ ही टिम्बर हैंडलिंग एसोशिएशन के अध्यक्ष, गांधीधाम चेंबर ऑफ़ कामर्स के सदस्य, कांडला कस्टम हॉउस एजेंट एसोसिएशन के सेक्रेटरी  कच्छ इंडस्ट्रीज एसोसिएशन अादी व्यवसायिक संस्थानों से जुडे हैं। इन सबसे अलग और महत्वपूर्ण कार्यों में "सुन्दरकांड प्रचारक संघ" का काम शामिल है। हर शनिवार अलग-अलग स्थानों पर सुंदरकांड का आयोजन किया जाता है, जो इन्हे ऊर्जा देने का काम करता है। उत्तर भारतीय कच्छ सेवा समाज संगठन के कोषाध्यक्ष भी हैं। इस समय इस संस्था की ओर से गांधीधाम में भव्य उत्तर भारतीय भवन का निर्माण किया जा रहा है। हेमचन्द्र यादव के नेतृत्व में यादव समाज की ओर से भी कई महत्वपूर्ण कार्य गुजरात में किये जा रहे हैं। 2011 में विभागीय परीक्षा देकर इन्होंने इम्पोर्ट (अायात) का लायसन्स भी प्राप्त कर लिया है। आज भी किताबें पढ़ने का शौक है, घर में ही एक लायब्रेरी है। आगे पीएचडी करने की इच्छा है। समाज के लोगों से निवेदन है की खूब पढ़ें। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जिसके बल पर तरक्की की जा सकती है। हमारे माता-पिता द्वारा दी गई शिक्षा ही हमारे काम आई। शिक्षा के माध्यम से समाज की कुरीतियों का खात्मा भी होता है। डिग्री लेने भर से ही कुछ नहीं होता लोगों में संस्कार लाना जरुरी है जिसके लिए नई पीढ़ी अच्छे संस्कार सीखे। अगर जीवन में तरक्की करनी है तो, किसी भी तरह के व्यसन से दूर रहे।
 हेमचन्द्र बताते हैं, माँ-पिताजी बड़े ही धार्मिक रहे हैं। माँ का आठ साल पहले देहांत हो गया। पिता श्री बुद्धिराम यादव गांधीधाम में ही परिवार के साथ रहते हैं। जब कभी मन होता है गांव घूम आते हैं। इन्ही की कृपा से गांव में 50 बीघा जमीन है। गांव से जब मैं मुंबई गया था तब मात्र डेढ़ बीघा जमीन थी। तीन बेटे तीन बेटियां है। बड़ी बेटी अंजू अपने पति श्री रमेश यादव (पीसीएस) के साथ लखनऊ में रहती है। दूसरी बेटी रोशनी आईएएस की तयारी कर रही है इसी तरह सबसे छोटी बेटी तारा सीएस की पढाई कर रही है। तीनो बेटे कन्हैया, कृष्णा नंदलाल कारोबार में साथ देते हैं। सभी का नामकरण माँ ने किया था। उनके जाने के बाद पोता हुआ सो हमने भी माँ की कृष्ण भक्ति से प्रेरित होकर "यदुराज" नाम रख दिया। माँ-पिताजी के साथ ही आज हम श्री राजेश्वर दुबे भाई हरिश्चन्द्र यादव का भी उतना ही सम्मान करते हैं, जिन्होंने हमें राह दिखाया। हम अपने विजिटिंग कार्ड पर भी "श्री राज राजेश्वर कृपा" लिखते हैं।

(हेमचन्द्र यादव से इस नंबर पर संपर्क किया जा सकता है-9825225515.)